पिताजी तुम्हें ढूंढ रही है मेरी आँखें
रचयिता- डॉ. अशोक कुमार वर्मा
पिताजी तुम्हें ढूंढ रही है मेरी आँखें।
कहीं सुनाई पड़ जाएं तुम्हारी बातें।
हर क्षण बचपन स्मरण हो आता है मुझे।
लिपटने के लिए जी चाहता है तुम्हें।
पिताजी तुम्हें ढूंढ रही है मेरी आंखें......
उंगली थाम कर चलना, गले लगाना
क्षण भर भी दूर न रहना, साथ में खाना
साथ में सोना, चले जाते थे कभी बाहर तुम
घंटों तक द्वार की और तकना
स्मरण हो आता है मुझे।
पिताजी तुम्हें ढूंढ रही है मेरी आंखें.......
सब आवश्यकताएं पूरी करते थे आप।
कभी नहीं थकते थे आप।
कितना भी कठिन हो काम पूर्ण किए बिना नहीं करते थे विश्राम।
कितनी दूर तक क्यों न पड़े जाना हमारे लिए कठोर परिश्रम से कमाना।
आज भी स्मरण हो आता है वो क्षण भर आता है मेरा मन।
पिताजी तुम्हें ढूंढ रही है मेरी आंखें......
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