शुक्रिया उस छोटी सी गोली का, वर्ना हम बच्चा पैदा करने की मशीन बने रह जाते|DB ओरिजिनल,DB
पूरी दुनिया में ज्ञान-विज्ञान और बौद्धिक संपदा को सहेजे जाने का इतिहास सैकड़ों साल पुराना है। सिर्फ आधुनिक विज्ञान की बात करें तो उसका इतिहास भी कम से कम ढाई सौ साल पुराना है, लेकिन अगर आप ये सवाल पूछेंगे कि इस ज्ञान-विज्ञान में स्त्रियों की हिस्सेदारी और साझेदारी का इतिहास कितना पुराना है तो दोनों हाथों की सारी उंगलियां भी ज्यादा ही पड़ जाएंगीं।
आधे दशक से थोड़ा ज्यादा। बमुश्किल साठ दशक पुराना। हालांकि शिक्षा में, ज्ञान में औरतों की हिस्सेदारी का एक और कनेक्शन है जो अधिकांश लोगों की नजरों से अनदेखा ही रह जाता था। तीन साल पहले 2020 में कॉन्ट्रासेप्टिव पिल्स यानी गर्भनिरोधक गोलियों के आविष्कार के 60 बरस पूरे हुए थे।
अब आप सोचेंगे कि शिक्षा और ज्ञान-विज्ञान में स्त्रियों की हिस्सेदारी का गर्भनिरोधक गोलियों के साथ क्या कनेक्शन है। तो इस कनेक्शन को समझने के लिए हमें हार्वर्ड की एक स्टडी तक जाना होगा।
क्लॉडिया गोल्डिन और लॉरेंस काट्ज हार्वर्ड की दो रिसर्च स्कॉलर थीं। उनकी एक ऐतिहासिक स्टडी है जिसका नाम है- द पावर ऑफ द पिल। अपने शोध में इन दोनों ने पाया कि 1960 में गर्भनिरोधक गोलियों के आविष्कार के बाद अगले दस सालों में अचानक कॉलेजों में लड़कियों की हिस्सेदारी का ग्राफ खरगोश की गति से ऊपर की ओर भागा।
इतना ही नहीं नौकरियों में भी उनकी हिस्सेदारी तेज गति से बढ़ने लगी।
ये मजाक नहीं था। शुरू में कोई ढंग से कनेक्शन बैठा भी नहीं पा रहा था कि इन दस सालों में आखिर ऐसा हुआ क्या था।
हुआ ये था कि गर्भनिरोधक गोली ने लड़कियों को विवाह और अनचाहे गर्भ की बाध्यता से मुक्ति दिला दी थी। शादी और गर्भावस्था महिलाओं की प्रगति की राह में सबसे बड़ी दीवार थी।
अधिकांश लड़कियां शादी के बाद सिर्फ तुरंत गर्भ धारण कर लेने, मां बन जाने या नए जन्मे बच्चे की जिम्मेदारियों के बोझ के कारण अपनी पढ़ाई जारी नहीं रख पाती थीं। एक छोटी सी गोली ने उन्हें इस अनचाहे गर्भ से मुक्ति दिला दी थी।
गुजरात हाईकोर्ट के जज समीर दवे निश्चित ही इतिहास के इस अध्याय से पूरी तरह अनजान रहे होंगे, जब वो 16 साल की एक लड़की के अनचाहे गर्भ पर अपने विचार व्यक्त करते हुए नारीवाद और विज्ञान का इतिहास कोट करने की बजाय मनुस्मृति को कोट कर रहे थे।
गुजरात की एक 16 साल की बच्ची अनचाहे गर्भ की चपेट में आ गई। वो गर्भपात के जरिए इस जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहती थी, जिसने पिता के जरिए (चूंकि लड़की अभी नाबालिग है) न्यायालय का दरवाजा खटखटाया ताकि उसे गर्भपात की अनुमति मिल सके, लेकिन उसे यह अनुमति देने के बजाय जस्टिस समीर दवे ने कहा, “जाओ, जाकर अपनी मां और दादी-नानी से पूछो। वो तुम्हें बताएंगीं कि पहले के समय में 14 से 16 साल की उम्र में लड़कियों की शादी हो जाती थी और 17 साल की होते-होते वो कम से कम एक बच्चे की मां बन जाती थीं।”
तो बेसिकली ये समझने और इस बात के प्रति संवेदनशीलता बरतने कि एक 16 साल की लड़की का इतनी कम उम्र में अनचाहे गर्भ की चपेट में आ जाना, बच्चे को जन्म देना, मां बनना जीवन भर की त्रासदी होगी, जज साहब बच्ची को ज्ञान दे रहे थे कि पुराने जमाने में ऐसा ही होता था और ऐसा होना बिल्कुल नॉर्मल बात है।
जज साहब ने ये नहीं बताया कि तुम्हारी दादी-नानी और उनकी दादी-नानी, जो 13-14 साल की उम्र में उनकी सहमति और मर्जी के खिलाफ किसी के भी साथ ब्याह दी जाती थीं, वो आजीवन गुलामों जैसा जीवन बिताती थीं। उन्हें कभी स्कूल जाने, पढ़ने, शिक्षा पाने और अपने पैरों पर खड़े होने का मौका नहीं मिलता था।
वो सिर्फ घर के काम करने वाली नौकरानी, पति को यौन सुख देने वाली दासी और बच्चा पैदा करने वाली मशीन होती थीं। उनकी पूरी जिंदगी में उनसे कभी किसी ने किसी मामले में उनकी मर्जी नहीं पूछी थी। उन्होंने चार बच्चे पैदा किए हों या चौदह, ये फैसला उनका नहीं होता था। वो बुढ़ापे में क्रोधी, चिड़चिड़ी, सतत नाराज और गुस्सैल कर्कशा में बदल जाती थीं।
जज साहब सिर्फ 17 की उमर में बच्चा पैदा करके धर देने का गुणगान कर रहे थे। उसके आसपास की कहानी नहीं बता रहे थे।
ये बात अगर घर की किसी दादी-नानी ने कही होती, दुआरे पर बैठकर हुक्का गुड़गुड़ा रहे दादा ने कही होती तो ये इतनी बड़ी बात नहीं होती। ये इतनी बड़ी बात इसलिए है क्योंकि यह अगले दिन सभी प्रमुख अखबारों की बड़ी खबर थी. क्योंकि इसे कहने वाला हाईकोर्ट का एक जज है।
औरतों को अब तक जितनी भी आजादी, स्पेस, समता और अधिकार हासिल हुए हैं, उसका श्रेय किसे जाता है। उसका श्रेय समाज को, परिवारों को, बदलते हुए पुरुषों को नहीं जाता। उसका श्रेय जाता है सरकारों को, लोकतंत्र को, इस देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं को, उनके श्रम को।
इसका श्रेय जाता है इस देश के संविधान और कानून को और उन लोगों को जिन्होंने ये कानून बनाए। इसका श्रेय जाता है इस देश की न्यायपालिका को और इसका श्रेय जाता है, विज्ञान की उन तमाम महान खोजों को, जिन्होंने औरत होने की त्रासदी को औरत होने की ताकत में बदल दिया।
संविधान में लिखा गया कि जेंडर के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा। इस देश के कानूनों ने कहा कि औरत और मर्द का हक बराबर है। समान वेतन का अधिकार, मातृत्व सुरक्षा का अधिकार, संपत्ति में बराबरी का अधिकार, सामाजिक सुरक्षा का अधिकार, यौन उत्पीड़न से सुरक्षा का अधिकार, दहेज उत्पीड़न से रक्षा का अधिकार, ये सारे अधिकार कानून ने दिए, न्यायपालिका ने दिए। न्यायालयों ने ये भरोसा दिया कि किसी संकट की स्थिति में उसका दरवाजा खटखटाया जा सकता है।
यह बात इतनी चिंताजनक और तकलीफदेह इसलिए है क्योंकि इसे कहने वाला मोहल्ले का अंकल नहीं, बल्कि न्यायपालिका का जज है। वो है, जो न्याय और बराबरी की हम औरतों की आखिरी उम्मीद है। यह रोशनी है, जो दुनिया के दिए अंधेरों में चमचमाती है। यह भरोसा है कि जब कोई नहीं होगा हमारे साथ तो कानून होगा। जब कुछ नहीं होगा तो सत्य होगा।
और क्यों न हो, आखिरकार एक मामूली सी गर्भनिरोधक गोली ने जो करिश्मा कर दिखाया था, वो न्याय और बराबरी के एक हजार स्लोगन भी नहीं कर पाए।
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