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Friday, April 1, 2022

अब तेल की कीमत क्यों बढ़ी और सरकार का इसमें रोल कहां आता है?

कुछ साल पहले जब पेट्रोल, डीज़ल की क़ीमतें बढ़ती थीं तो विरोध प्रदर्शन दिखते थे। आम लोग हों या ख़ास लोग, सबकी तरफ़ से प्रतिक्रियाएं सामने आती थीं। अब ऐसा नहीं होता, आख़िर क्यों?

भाजपा ने ईंधन की क़ीमतों में बढ़ोतरी को लेकर कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार पर हमला करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, हालांकि सत्ता में आने पर उसने पेट्रोल, डीज़ल के दामों को कम करने के अपने वादे को पूरा नहीं किया और इसके लिए अंतरराष्ट्रीय कारकों को ज़िम्मेदार बताने लगी.

नई दिल्ली: मई 2012 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे. उन्होंने तत्कालीन सरकार द्वारा ईंधन की कीमतों में अत्यधिक बढ़ोतरी को कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की विफलता के एक प्रमुख उदाहरण के तौर पर पेश किया.

भाजपा और उसके नेताओं ने मनमोहन सिंह सरकार पर हमलावर होने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उन्होंने वादा किया था कि अगर भाजपा सत्ता में आती है तो ईंधन की कीमतों में कमी लाएंगे.

वर्षों बाद भी, उस वादे को साकार होता देखना नागरिकों के लिए केवल दूर का सपना इसलिए प्रतीत होता है क्योंकि मोदी सरकार ने ईंधन की कीमतों में अभूतपूर्व वृद्धि की है.

5 राज्यों कर चुनाव परिणामो के बाद पिछले 10 दिन में से 9 दिन दाम बढ़े हैं,  जो पैट्रोल  व डीजल दोनों के 5 रु 59 पैसे बढ़ चुके, जबकि डीजल के थोक विक्रताओ के लिए 25 रूपये बढ़ चुके है |

एक दौर था जब पेट्रोल और डीज़ल के भाव में इज़ाफा होता था तो अगले दिन अखबार के फ्रंट पेज पर बड़ी-बड़ी हेडलाइन होती थी. भाव बढ़ने की खबर सुनते ही लोग पेट्रोल पंप पर टंकी फुल कराने के लिए पहुंच जाते थे, ताकि नई रेट ना लगे. अब ऐसा लगता है कि पेट्रोल और डीज़ल के भाव बढ़ना तो कोई खबर ही नहीं है. लगभग रोज़ ही तो भाव बढ़ रहे हैं. पहले पेट्रोल 100 रुपये पार गया और अब डीज़ल भी देश के कई हिस्सों में 100 वाले आकंड़े को छू गया है. तेल के भावों की इस रेस में इस बार एडिबल ऑयल भी दौड़ रहा है. पिछले एक साल में खाने का तेल जितना महंगा हुआ, उतना एक दशक में नहीं हुआ. गरीब हो या अमीर हर घर में तेल इस्तेमाल होता है और इसका भाव बढ़ने का असर देश के हर घर पर पड़ता है. एक तरफ सरकार कह रही है कि वो कोरोना से लोगों को राहत देने के लिए आर्थिक पैकेज दे रही है, दूसरी तरफ बढ़ी हुई महंगाई से गरीबों की जे़ब और खाली हो रही है. तो क्या सरकार कीमतें नियंत्रित करना नहीं चाहती है या उसकी कोई मजबूरी है. इसी पर आज विस्तार से बात करेंगे.

पहले बात एडिबल ऑयल्स की करते हैं

एडिबल ऑयल्स यानी खाने के काम में लिए जाने वाले तेल. हमारे देश में सरसों, मुंगफली, सोया, सूरजमुखी, पाम और वनस्पति का तेल ही मुख्यत इस्तेमाल होता है. अगर आप घर का सामान खरीदकर लाते हैं तो आपको पता होगा कि पिछले एक साल में सरसों या दूसरे तेल के दामों में कितनी बढ़ोतरी हुई है. डेढ़ से दो गुना तक कीमतें बढ़ी हैं. पिछले 10 साल में खाने के तेल के दाम अचानक इतने नहीं बढ़े. सालभर से पहले अगर तेल के दाम बढ़ते भी थे तो 10-20 रुपये किलो वाली बढ़ोतरी होती थी. लेकिन पिछले कुछ महीनों में तो जैसे तेल के भाव एक्सीलेटर पैर रखकर ही बैठ गए हों. सरसों के तेल का उदाहरण लेते हैं. कंज्यूमर अफेयर्स मिनिस्ट्री के आंकड़ों के मुताबिक 31 मार्च को दिल्ली में एक किलो पैक्ट सरसों के तेल का भाव 201 रुपये था. देश का अधिकतम रेट 260 रुपये है. अगर पूरे देश के एवरेज की बात करें तो 188.2 किलो में सरसों का एक किलो तेल आ रहा है. जबकि तेन साल मार्च के आखिर में एक किलो सरसों का तेल 104.3 रुपये का आता था. इसी अनुपात में और भी तेलों की कीमत बढ़ी है.

अब तेल की कीमत क्यों बढ़ी और सरकार का इसमें रोल कहां आता है?

बाज़ार में हर चीज़ की कीमतें सामान्य दिनों में डिमांड और सप्लाई के नियम से तय होती हैं. अगर डिमांड और सप्लाई में से कोई एक भी फैक्टर कम या ज़्यादा होता है तो कीमतें असामान्य रूप से कम या ज़्यादा होती हैं. तो अभी तेल की बढ़ी कीमतों के संदर्भ में पहले डिमांड की बात करते हैं.

देश में अचानक तेल की ज़्यादा डिमांड हो गई हो, ऐसा नहीं है. साल दर साल देश में तेल की खपत थोड़ी बहुत बढ़ती है. ग्रामीण इलाकों में सरसों का तेल ज्यादा इस्तेमाल होता है और शहरी इलाकों में सूरजमुखी और सोयाबीन के रिफाइंड ऑयल की खपत ज्यादा है. तेल का इस्तेमाल किस गति से बढ़ रहा है ये समझने के लिए हमारे पास आंकड़े हैं. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक साल 1993-94 में तेल की खपत प्रति व्यक्ति ग्रामीण इलाकों में औसतन 370 ग्राम थी और शहरी इलाकों में 480 ग्राम थी. यानी एक आदमी औसतन इतना तेल खाता था. 2011-12 में बढ़कर ये आंकड़ा ग्रामीण इलाकों के लिए 670 ग्राम और शहरी इलाकों के लिए 850 ग्राम हो गया. यानी लगभग दोगुना. इसके बाद का प्रति व्यक्ति वाला आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, लेकिन ओवरऑल जो खपत का आंकड़ा है वो बताता है कि तेल की डिमांड साल दर साल बढ़ती है. डिमांड का ग्राफ धीमे-धीमे ऊपर जा रहा है. यानी ये बात बिल्कुल नहीं है कि इसी साल लोगों ने तेल ज्यादा खाना शुरू कर दिया हो, और उसकी वजह से भाव बढ़ रहे हों.

तो भाव बढ़ रहे हैं सप्लाई के सिरे पर. देश में तेल की जितनी खपत होती है, उतना हमारे यहां पैदा नहीं होता है. बाहर से आयात करना पड़ता है. साल 2019-20 में हमारा कुल तेल उत्पादन लगभग 1 करोड़ 10 लाख टन था. और मांग थी 2 करोड़ 40 लाख टन की. यानी घरेलू उत्पादन के बाद करीब 1 करोड़ 30 लाख टन तेल कम पड़ रहा था. ये कमी आयात से दूर होती है. आधे से ज्यादा तेल हमें विदेश से मंगवाना पड़ता है. और जितना तेल आयात करते हैं उसका 86 फीसदी हिस्सा सोयाबीन और पाम ऑयल होता है. पाम ऑयल हम इंडोनेशिया या मलेशिया से आयात करते हैं.

अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में भाव क्यों बढ़ रहा है?

इसीलिए अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में एडिबल ऑइल की कीमतों से हमारे देश में भी कीमतों पर असर पड़ता है. साल भर में अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में तेल का भाव बढ़ा है. अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में भाव क्यों बढ़ रहा है, इसकी कई वजह हैं. एक वजह तो ये मानी जा रही है कि खाने के तेल का इस्तेमाल ईंधन के लिए भी होने लगा है. अमेरिका, ब्राज़ील जैसे देशों में सोयाबीन के तेल से रिन्यूएबल एनर्जी तैयार की जा रही है. इसके अलावा कई और भी फैक्टर्स हैं जो अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में खाने के तेल की कीमत बढ़ा रहे हैं. जैसे इंडोनेशिया और मलेशिया में एक्सपोर्ट ड्यूटी बढ़ाना, लेबर की दिक्कतें या ला निन्या तूफान से नुकसान. तेल महंगा होने की कुछ वजह, सॉल्वेंट एक्सट्रैक्टर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के एक्सिक्यूटिव डायरेक्टर बीवी मेहता ने इंडिया टुडे को बताई. इनके मुताबिक पाम ऑयल में बहुत मेहनत लगती है. और मलेशिया जो पाम ऑयल का बड़ा निर्यातक है, वो माइग्रेट लेबरर्स पर डिंपेड रहता है. कोरोना में बॉर्डर्स सील होने की वजह से लेबर की कमी रही. इससे प्रोडक्शन पर असर पड़ा | अब रूस और उक्रेन के बिच युद्ध भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तेल केर दामों मे बढ़ोतरी का मुख्य कारण है |

तो जाहिर है अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में खाने के तेल की कीमतें तो हम नियंत्रित नहीं कर सकते. लेकिन भारत की सरकार ये ज़रूर तय कर सकती है कि वो महंगा तेल भारत के लोगों को थोड़ा सस्ता मिल सके. आयात पर शुल्क घटाकर ऐसा किया जा सकता है. और सरकार आयातित तेल पर कितना टैक्स लेती है. 2 फरवरी 2021 के बाद से ये रेट 35.75 फीसदी से लेकर 60 फीसदी तक है. इसमें इम्पॉर्ट ड्यूटी के अलावा एग्रीकल्चर सेस और सोशल वेलफेयर सेस भी शामिल है. मिसाल के तौर पर – रिफाइंड और ब्लिचड पाम ऑयल जिसे RBD पाम ऑयल कहते हैं इस पर टैक्स करीब 60 फीसदी है. क्रूड और रिफाइंड सोयाबीन पर टैक्स 38 फीसदी से 49 फीसदी के बीच है. 
तो अगर आयात शुल्क में सरकार रियायत देती है तो तेल की कीमतें कम हो सकती हैं. लेकिन सरकार ऐसा करती दिख नहीं रही. 

अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चा तेल सस्ता है तो ज्यादा टैक्स ले लिया?

अब गाड़ी में डालने वाले तेल की बात करते हैं. पेट्रोल के बाद डीज़ल भी लगभग 100 रुपये लीटर हो चुका है. आपके वाहन हो या ना हो, डीज़ल और पेट्रोल के भाव बढ़ने का असर हरेक पर पड़ता है. तेल की कीमतों के साथ हर चीज़ की महंगाई जुड़ी है. और खाने के तेल की तरह पेट्रोल-डीज़ल के भाव पर सरकार अंतर्राष्ट्रीय कीमतों को भी जिम्मेदार नहीं बता सकती. आज से 11 साल पहले मई 2011 में पेट्रोल का भाव करीब 63 रुपये प्रति लीटर था. और तब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल का भाव आज से ज़्यादा था. अभी क्रूड ऑयल 72 डॉलर प्रति बैरल है, फिर पेट्रोल का भाव लगभग दोगुना है. और फिर यहां बात आ जाती है सरकार के टैक्स की.  एक लीटर पेट्रोल पर केंद्र सरकार और राज्यें सरकारें किस तरह से टैक्स बढ़ाती रहती हैं. दोनों तरफ का मिलाकर अभी पेट्रोल पर 150 फीसदी और डीज़ल पर 120 फीसदी के करीब टैक्स है. सरकार अपने टैक्स में कोई कटौती नहीं करना चाहती. जब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में तेल 40-45 डॉलर प्रति बैरल था तब भी सरकार इतना ही टैक्स ले रही थी. और अब कच्चा तेल महंगा हुआ तो भी टैक्स में कटौती नहीं हुई.

जब कोई चुनाव नज़दीक होता है तो तेल की कीमतें कुछ दिन बढ़ना रुक जाती हैं. चुनाव खत्म होते ही सरकार फिर तेल के भाव को भूल जाती है. 5 प्रदेशो के चुनाव के नतीजो के बाद पिछले 10 दिन मे9 बार तेल की कीमतें बढ़ चुकी हैं. अक्सर देखा जाता है कि जब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चा तेल सस्ता होता है तो ज्यादा टैक्स ले लिया जाता है, तो अब जब कच्चा तेल महंगा हो रहा है तो टैक्स में कटौती करे. लेकिन ऐसा कुछ हो नहीं रहा. ऐसा लगता है कि सरकार को तेल की बढ़ी हुई कीमतों और लोगों पर पड़ते बोझ से कोई मतलब ही नहीं. एक तरफ सरकार कोविड के नाम पर राहत पैकेज की घोषणाएं कर अपनी पीठ थपथपाती है और दूसरे हाथ से लोगों के जेब से पैसे निकाल भी रही है. और इसमें केंद्र और राज्य दोनों की सरकारें बराबर शामिल हैं.

लंबे समय तक नहीं बढ़े दाम, 19000 करोड़ का नुकसान

आपको बता दें कि देश में चार नवंबर, 2021 से 21 मार्च, 2022 के बीच कच्चे तेल की कीमतों में उछाल के बावजूद ईंधन कीमतों में कोई बदलाव नहीं हुआ था। इस दौरान कच्चे तेल का दाम नवंबर के 82 डॉलर प्रति बैरल से मार्च के पहले तीन सप्ताह में औसतन 111 डॉलर प्रति बैरल रहा था।

रिपोर्ट के मुताबिक देश की शीर्ष तीन पेट्रोलियम कंपनियों को कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि के बावजूद ईंधन के दाम नहीं बढ़ाने की वजह से नवंबर से मार्च, 2022 तक 2.25 अरब डॉलर (करीब 19,000 करोड़ रुपये) का नुकसान हुआ है। ये नुकसान इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन (आईओसी), भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन (बीपीसीएल) और हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉरपोरेशन (एचपीसीएल) को हुआ है। 

क्या कहा मूडीज ने: मूडीज ने अपनी रिपोर्ट में कहा, ‘‘बाजार की मौजूदा कीमतों के आधार पर पेट्रोलियम कंपनियों को वर्तमान में पेट्रोल की बिक्री पर लगभग 25 डॉलर (1,900 रुपये से अधिक) प्रति बैरल और और डीजल पर 24 डॉलर प्रति बैरल का घाटा हो रहा है।’’ रिपोर्ट में कहा गया कि अगर कच्चे तेल की कीमतें औसतन 111 डॉलर प्रति बैरल के आसपास बनी रहती हैं, तो आईओसी, बीपीसीएल और एचपीसीएल को पेट्रोल-डीजल की बिक्री पर रोजाना सामूहिक रूप से 6.5 से सात करोड़ डॉलर का नुकसान हो सकता है।


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